वाराणसी। रामनगर रामलीला के ग्यारहवें दिवस का मंचन श्रद्धा, भक्ति और करुणा के अद्भुत संगम के रूप में प्रस्तुत हुआ। कथा का केंद्रबिंदु महाराज दशरथ के पुत्र भरत जी का त्याग और श्रीराम के प्रति उनका अनुपम प्रेम रहा। राम के वियोग में व्याकुल भरत का हृदय दर्शन के लिए तड़पता है और सिंहासन को अस्वीकार कर केवल प्रभु चरणों की शरण लेने का प्रण करता है। कथा का आरंभ अयोध्या से हुआ, जब भरत और शत्रुघ्न ननिहाल से लौटते हैं। महल की सूनी दशा और नगरवासियों के विषादपूर्ण वातावरण को देखकर भरत का मन व्याकुल हो उठता है। महारानी कैकयी से जब वे राम और अयोध्या की कुशलता पूछते हैं तो कैकयी सब कुछ प्रसन्न मन से कहती हैं। यह सुनकर भरत जी कुपित हो उठते हैं और मां को कटु वचन सुनाते हैं। इसी बीच मंथरा के प्रकट होने पर शत्रुघ्न जी उसका दंड देने को उद्धत हो जाते हैं, किंतु भरत के रोकने पर उसे छोड़ देते हैं। इसके उपरांत दोनों भाई माता कौशल्या के पास पहुँचते हैं। दशा देखकर वे उनके चरणों में गिर पड़ते हैं। कौशल्या जी का मातृ-हृदय वेदना से छलक उठता है और वे दोनों पुत्रों को गले लगाकर रो पड़ती हैं। भरत जी रोते हुए कहते हैं – “हे माता, मुझे राम के दर्शन करा दीजिए। यह सब मेरे ही पाप का फल है।” माता उन्हें समझाती हैं कि यह विधि का विधान है, इसमें किसी का दोष नहीं। गुरु वशिष्ठ के आदेश से दशरथ जी के क्रियाकर्म का संक्षिप्त पाठ किया गया। मंच पर यह दृश्य परंपरा के अनुसार नहीं दिखाया गया, बल्कि केवल श्रवण कराया गया। इसके बाद सभा में गुरु वशिष्ठ ने उपदेश देते हुए कहा कि मृत्यु पर शोक करना व्यर्थ है। शोक उन पर करना चाहिए जो धर्म, नीति और भक्ति से विमुख हैं। तुलसीदास जी की चौपाइयों ने इस प्रसंग को और भी गहन बना दिया –
“सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना…
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना…”
सभा के अंत में भरत जी ने सबको स्पष्ट किया कि वे अयोध्या के सिंहासन के अधिकारी नहीं हैं। उनका मानना है कि उनके कारण ही राम, लक्ष्मण और सीता को वनगमन करना पड़ा। वे स्वयं को पापी कहते हुए निवेदन करते हैं कि अयोध्या का एकमात्र राजा राम ही होंगे। वे स्वयं को उनका दास बताते हुए वनगमन की तैयारी करते हैं। भरत जी जब बिना रथ के चलने लगे तो माता कौशल्या के आग्रह पर रथ से प्रस्थान करते हैं। मार्ग में उनकी भेंट निषादराज से होती है। पहले निषादराज शंका करते हैं, किंतु भरत जी के निर्मल प्रेम को देखकर उनके चरणों में गिर जाते हैं। भरत भी उन्हें गले लगाकर अपना बनाते हैं। आकाश से देवताओं ने इस भावपूर्ण दृश्य की सराहना की। इसके उपरांत भरत जी उस स्थल पर पहुँचे जहाँ राम ने विश्राम किया था। भूमि पर गिरकर वे विलाप करने लगे। निषादराज ने उन्हें सांत्वना दी। अगले दिन गंगा पार कर वे भारद्वाज आश्रम पहुँचे, जहाँ गुरु-शिष्य संवाद के रूप में ज्ञान की धारा प्रवाहित हुई और यहीं कथा का विश्राम हुआ। अंत में दो आरतियाँ हुईं – पहली भरत जी की आरती निषादराज द्वारा और दूसरी चित्रकूट में श्रीराम, सीता और लक्ष्मण की आरती, जिसे कोनिया स्थित श्रीराम जानकी मंदिर के महंत धनुर्धारी जी ने संपन्न कराया।रामनगर रामलीला के ग्यारहवें दिन का मंचन न केवल भक्ति और करुणा से सराबोर रहा, बल्कि इसने यह भी दर्शाया कि सच्चा प्रेम और त्याग किसी भी राजसत्ता और वैभव से बड़ा होता है।